
Supreme Court Judgement On Promotion से जुड़ा एक महत्वपूर्ण फैसला सामने आया है, जिसमें देश की सर्वोच्च अदालत ने साफ कहा है कि किसी भी कर्मचारी को प्रमोशन (Promotion) का कानूनी अधिकार भले ही न हो, लेकिन उसे पदोन्नति के लिए ‘विचार किए जाने’ का अधिकार जरूर है। इस फैसले का सीधा असर लाखों सरकारी और निजी कर्मचारियों पर पड़ सकता है, जो प्रमोशन न मिलने पर अक्सर खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं।
यह फैसला एक कांस्टेबल की याचिका पर आया, जिसे साल 2019 में इन-सर्विस प्रमोशन प्रक्रिया के दौरान सब-इंस्पेक्टर पद के लिए अयोग्य करार दिया गया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि विभाग इस कांस्टेबल को प्रमोशन के लिए नजरअंदाज करके उसके अधिकारों का उल्लंघन कर रहा है।
प्रमोशन का अधिकार नहीं, लेकिन ‘विचार’ अनिवार्य: सुप्रीम कोर्ट
Supreme Court ने अपने फैसले में कहा कि Promotion कर्मचारी का संवैधानिक अधिकार नहीं है, लेकिन कोई भी विभाग या कंपनी यह नहीं कह सकती कि वह किसी कर्मचारी पर विचार ही नहीं करेगी। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि अगर कर्मचारी के खिलाफ कोई स्पष्ट अयोग्यता नहीं है, तो उसे प्रमोशन की प्रक्रिया में शामिल करना जरूरी है।
तमिलनाडु के इस कांस्टेबल का मामला 2002 में नौकरी से शुरू हुआ था। जब 2019 में इन-सर्विस प्रमोशन प्रक्रिया शुरू हुई, तो उसे सब-इंस्पेक्टर के पद के लिए योग्य नहीं माना गया। विभाग ने इसके पीछे दो कारण बताए—एक विभागीय कार्रवाई और एक पुराना आपराधिक मामला।
पुराने मामलों को आधार बनाकर नहीं रोकी जा सकती तरक्की
याचिकाकर्ता कांस्टेबल ने बताया कि विभागीय कार्रवाई के तहत 2005 में उसे एक साल के लिए वेतन वृद्धि रोकने की सजा दी गई थी, जो 2009 में समाप्त हो चुकी थी। वहीं, आपराधिक केस में या तो उसे बरी किया जा चुका था या सजा को रद्द किया जा चुका था। इसके बावजूद 2019 में उसे प्रमोशन प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया।
Supreme Court ने इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कहा कि जब सजा पूरी हो चुकी थी और केस में उसे दोषमुक्त कर दिया गया, तो उस आधार पर उसे प्रमोशन के काबिल न मानना न्यायसंगत नहीं है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि विभाग ने ‘विचार के अधिकार’ का उल्लंघन किया है।
हाईकोर्ट का फैसला पलटा, कर्मचारी को मिली राहत
इससे पहले Madras High Court ने कांस्टेबल की याचिका को खारिज कर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फैसले को पलटते हुए कर्मचारी के पक्ष में निर्णय सुनाया और यह आदेश दिया कि विभाग को अब कांस्टेबल की योग्यता की दोबारा समीक्षा करनी होगी।
अगर समीक्षा के बाद पाया जाता है कि वह 2019 में प्रमोशन के योग्य था, तो उसे उसी वर्ष से प्रमोशन दिया जाएगा और उस पद के साथ जुड़ी सभी सुविधाएं और लाभ भी प्रदान किए जाएंगे। कोर्ट ने यह भी कहा कि विभाग की गलती का खामियाजा कर्मचारी को नहीं भुगतना चाहिए।
निजी कंपनियों के लिए भी सबक है यह फैसला
हालांकि यह मामला सरकारी विभाग से जुड़ा है, लेकिन यह निर्णय निजी क्षेत्रों के लिए भी अहम संकेत देता है। अक्सर देखा गया है कि निजी कंपनियों में भी कर्मचारियों को बिना स्पष्ट कारणों के प्रमोशन से वंचित कर दिया जाता है। Supreme Court का यह फैसला इस बात को मजबूती से रेखांकित करता है कि अगर कर्मचारी योग्य है और उस पर कोई स्पष्ट आपत्ति नहीं है, तो उसे प्रमोशन की प्रक्रिया में शामिल करना अनिवार्य है।
कई बार कर्मचारी को पुराने आरोपों या हल्की अनुशासनात्मक कार्रवाइयों के आधार पर प्रमोशन से बाहर कर दिया जाता है, जो न्यायोचित नहीं है। यह निर्णय बताता है कि न्यायपालिका कर्मचारी के हितों की रक्षा के लिए सतर्क है और विभागीय प्रक्रिया में पारदर्शिता बनाए रखना जरूरी है।
भविष्य में HR और प्रशासनिक नीतियों में दिखेगा असर
इस फैसले का असर भविष्य में विभिन्न संस्थानों की HR नीतियों पर भी पड़ सकता है। कर्मचारी अब यह जान सकेंगे कि भले ही प्रमोशन उनका संवैधानिक अधिकार न हो, लेकिन Promotion Consideration का अधिकार उनके पास है, और इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। इससे पदोन्नति की प्रक्रिया में पारदर्शिता, जवाबदेही और निष्पक्षता को बल मिलेगा।
Supreme Court ने यह भी संदेश दिया है कि कर्मचारी की योग्यता को तय करने से पहले, सभी तथ्यों और पुरानी परिस्थितियों को निष्पक्ष तरीके से परखा जाना चाहिए। यह न केवल संस्थानों के प्रशासन को मजबूत करेगा, बल्कि कर्मचारियों का मनोबल भी बढ़ाएगा।